जब मैं बालक था, तो मैं बालकों की नाईं बोलता था, बालकों का सा मन था बालकों की सी समझ थी; परन्तु सियाना हो गया, तो बालकों की बातें छोड़ दी। (1 कुरिन्थियों 13:11)
परमेश्वर की संतान होने के नाते आपकी भाषा और शब्दों का चुनाव सदैव ईश्वरीय होना चाहिए। आप अपनी भाषा इस संसार से नहीं प्राप्त कर सकते। जब भी आप बोलें तो आपके मुँह से दिव्यता, ज्ञान और विश्वास निकलना चाहिए।
आपके शब्दों में वह क्षमता है कि वे उस विषय को रच सकें जिसके बारे में वे बात करते हैं। परमेश्वर शब्दों से रचता है। उसने उत्पत्ति 1 में सृष्टि की रचना के बारे में बताया। उसने , हमें उसकी छवि और उसके जैसा बनाया, इसलिए हम उसके जैसे ही शब्दों के साथ सृजन भी करते हैं। जब आप यह समझ लेंगे तो आप कभी भी खोखले, बेकार शब्द नहीं बोलेंगे। आप शब्दों का सही उपयोग करेंगे। आप केवल आशीष के शब्द बोलेंगे, जीवन के शब्द, ऐसे शब्द जो दूसरों का निर्माण और उत्थान करते हैं; ऐसे शब्द जो दूसरों में विश्वास, आशा और प्रेम प्रेरित करते हैं।
अपनी दिव्यता पर कायम रहें और ऐसे शब्दों और वाणी का प्रयोग न करें जिन्हें दुनिया प्रचलित और आधुनिक मानती है, जो पूरी तरह से परमेश्वर के वचन के विरुद्ध है। आप दिव्य हैं, आपकी वाणी भी दिव्य होनी चाहिए। मत्ती 12:36-37 में हमारे प्रभु यीशु की चेतावनी को याद रखें: “और मै तुम से कहता हूं, कि जो जो निकम्मी बातें मनुष्य कहेंगे, न्याय के दिन हर एक बात का लेखा देंगे। क्योंकि तू अपनी बातों के कारण निर्दोष और अपनी बातों ही के कारण दोषी ठहराया जाएगा॥”
प्रार्थना:
अनमोल पिता, मुझे सही बोलने की बुद्धिमत्ता देने के लिए मैं आपका धन्यवाद करता हूँ। मैं आत्मिक बातें बोलता हूँ। मैं हर समय विश्वास, प्रेम और अनुग्रह से भरे शब्द बोलता हूँ। मैं इस संसार के तौर-तरीकों का पालन करने से इनकार करता हूँ, बल्कि इसके बजाय मैं परमेश्वर के वचन को थामे रखता हूँ, अभी और हमेशा के लिए, यीशु के नाम में। आमीन!